beintiha वहशत

mohe sudh budh na rahi tan man ki, yeh toh jaane duniya saari

bebas aur lachaar phirun, haari main dil haari

कैलाश खेर

मेरी ज़िन्दगी के उज्ज्वल सुबह में एक काली शाम ढल गयी है। गिरते-सँभलते मैं आखिर एक ऐसे मोड़ पर आ पहुंची हूँ जहां मुझे कुछ भी महसूस नहीं होता। एक ज़माना ऐसा भी याद है जब हँसते-हँसते दिन रात बीत जाते थे। एक ऐसा ज़माना जब मैं मोहब्बत में इतनी नादान थी की रोते-रोते भी हँस पड़ती थी। शायद अपनी ख़ुशी पर खुद की ही नज़र लग गयी। वक़्त के गुज़रते मेरी मोहब्बत भी ढलने लगी और साथ ही साथ मेरी ख़ुशी दर्द में तब्दील होने लगी। इस शाम मेरे ख़याल परेशानी से लिपटे हुए है। मैं आखिर एक ऐसे कश्मकश में उलझ गयी जिसको सुलझाने का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा।

जो जूनून और जोश मोहब्बत के आग़ाज़ में पाया था, वह समय बीतने पर कहाँ लुप्त हो जाता है? मेरा दावा है की मैं अभी भी उस शख्स से उतना प्यार करती हूँ जितना शुरुआत में किया था – फिर उनके एक नज़र मिलाने से यह दिल धड़कता क्यों नहीं? फिर उनकी एक मुस्कराहट पाकर मेरा दिन उज्जवल और रात चांदनी क्यों नहीं हो जाती? मुझे किस चीज़ का खौफ है? एक दिन हम सब मौत की काली आग़ोश में इस क़दर सिमट जाएंगे की हमारे सभी ख़याल, जज़्बात और करतूत ख़ाक बनकर बह जाएंगे। फिर खौफ किस बात का? इस मुख़्तसर ज़िंदगानी में रुस्वा होने का? या किसी की आँखों में अपनी इज़्ज़त खो देने का?

इस सवाल का जवाब मुद्दत से मेरे ज़हन में लहरा रहा था, आज आखिर मैंने इसे इज़हार कर ही दिया। मुझे सिर्फ उनको खोने का खौफ है; बेइंतिहा खौफ। हकीकत तो यह है की मैंने वो शख्स से जितना प्यार किया, उससे कहीं ज़्यादा मोहब्बत के एहसास से प्यार किया था। मेरा इश्क़ का सिलसिला फ़क़त एक ख़ुशी की जुस्तुजू बनकर रह गया था। मुझे अपनी ज़िंदगानी में उनके द्वारा लाये हुए रंग, नूर और जज़्बे से इतना फितूर था की मैं उनको खोने के ख़याल से ही सेहमा जाती – अगर मैंने उनका प्यार खो दिया तब मैं हिज्र का दर्द कैसे सहूंगी? मेरा दिल कैसे संभलेगा, यह आँखें कैसे रजेंगी?

मेरे दिल में वहशत है और मैं लाचार हूँ। शायद ज़िन्दगी उतनी भी हसीं नहीं है, शायद खुदा उतने भी मेहरबान नहीं है। अस्तग़फरूल्लाह।

Advertisement

एक ग़ज़ल mohabbat ke naam

hum hi mein thi na koi baat yaad na tum ko aa sake

tumne humein bhula diya hum na tumhein bhula sake

हफ़ीज़ जालंधरी

अब ना तारीख ना वक़्त याद रहा सनम इतना याद है हमें
बस वो भरी बज़्म थी और हम एक दूसरे के निगाहों में

उस मुख्तसर लम्स ने हमें हवस से यूँ सैराब कर दिया
कि हर रात यह ख्वाब आता है आप समाए हमारे बाहों में

अब यह निगाह-ए-नाज़ की हसरत आप आख़िर पूरी कर भी लो
लंबी शाम है सनम दूर मत जाओ रह जाओ ना इन आँखों में

मोहब्बत इज़हार करते हो फिर कभी निभाते क्यूँ नहीं
ग़ौर से देखो ना सनम कितना शौक़ है मेरे इशारों में

आपको तक़दीर मानते रहे पर तक़दीर का निसबत क्या आपसे
जब जब हम मिले इत्तेफ़ाक़ शुमार थे उन मुलाक़ातों में

अब तबाह दिल को क्या बचाओगे काश आगाज़-ए-मोहब्बत में
कोई कह देता की आब कभी मिलता नहीं सराबों में

ghazal hai ya अनकहा जज़्बात

aur to koi bas na chalega hijr ke dard ke maaron ka,

sub.h ka hona duubhar kar de, rasta rok sitaaron ka

इब्न -ऐ -इंशा

जब मेरे तमाम इश्क़ के सिलिसले अधूरे रह गए, मैंने शिकस्त होकर यह ग़ज़ल लिखी

ऐ मोहब्बत तूने मेरा क्या हाल कर दिया
नादान इस दिल को किस तरह मलाल कर दिया

क्या हुनर उनकी काजल लदी निगाहों का
कैसे एक लम्हे में हूमें घायल कर दिया

कश्मकश में छोड़ गया दिल का दस्तूर-ए-उलफत
उन्हें पा भी ना पाए भूलना मुहाल कर दिया

उनके बिना गुमराह थे पाकर गुमराह रहे
ऐ इश्क़ तूने ऐसे हूमें निढाल कर दिया

हर रोज़ उन्हीं के तरफ कदम जाते रहे
जब हमने उनसे परहेज़ का ख़याल कर दिया

हर दास्तान-ए-उलफत का अंजाम हिज्र से क्यूँ हुआ
हमने गिरकर खुदा से यह सवाल कर दिया